इस्लाम की इतनी निंदा क्यों?
इस्लाम और मोहम्मद को लेकर अधिकतर ग़ैरमुस्लिमों में एक निंदा या घृणा का भाव देखने को मिलता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि ऐसी सोच रखने वालों ने क्या कभी इस्लाम का इतिहास, क़ुरआन, या मोहम्मद की जीवनी पढ़ी है।

मुस्लिमों और उनके पैग़म्बर को लेकर मेरी भी सोच बहुत आलोचनात्मक थी जब तक मैं अपने उस्ताद, प्रोफेसर चौबे, से नहीं मिला था। उस्ताद के मार्गदर्शन में मैंने इस्लामी इतिहास और क़ुरआन की कुछ बुनियादी बातों का अध्ययन किया। मोहम्मद की जीवनी पढ़ी और उनके अनूठे व्यक्तित्व की गहराइयाँ और ऊंचाइयाँ जानी।

फिर यह प्रण लिया कि बिना किसी व्यक्ति या विषय के बारे में अच्छे से जाने, समझे उसके बारे में कोई राय नहीं बनाऊंगा।

अधिकतर हिंदू और मुस्लिम बिना एक दूसरे के इतिहास या ग्रंथों को पढ़े एक दूसरे के बारे में राय बना लेते हैं। यह राय न केवल भ्रम पैदा करती है बल्कि हिंसा को भी जन्म देती है। सबसे ख़तरनाक बात यह है कि हमारे अज्ञान का शोषण कुछ लोग अपने फ़ायदे के लिए करते हैं। वे अपने विचार हम पर थोपते हैं, हमें गुमराह करते हैं, एक दूसरे से लड़ाते हैं।

इससे बचना है तो हमें अपने अंदर अध्ययन की आदत डालनी होगी। जीवन को जानने का एक सार्थक और सुव्यवस्थित प्रयास करना होगा। तभी हम सही राय बनाने के योग्य होंगे।